जीवन के दीर्घ सफ़र में
कुछ सड़के बनी रही
कुछ टूट गई
कुछ सवरे कुछ बिगड़े
वक्त के खेल खिलौनों में
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कुछ सड़के बह गई
पुरवाई की पहली बारिश में
कुछ बनी रही सदियों तक
ग्रीष्म, बर्फ और सर्द हवाओं में
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ऐसा क्यों कैसे होता हैं?
क्यों कुछ टूटे कुछ बने रहे?
क्या गिट्टी पत्थर सस्ते थे?
या मज़दूर बड़े मन-मस्त से थे?
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या हम ने अपना सर्वस्व लगा डाला
उस सपने में, उस ख्वाहिश में ,
उस रिश्ते में, उस आज़माइश में
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पर फिर भी पहली बारिश में
सब बिखर गया
सब डूब गया
सब छूट गया
सब रूठ गए
धागे सब बंधन के टूट गये
फिर गाँठों की माला हाथों में छूट गए
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तो पूछा मैंने ख़ुद से
अक्सर जीवन में हताश हुए
की क्यों सपने के बनने को
पहले बिखरना ज़रूरी हो ?
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क्यों सोने के निखरने को
पहले जलना ज़रूरी हो ?
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क्यूँ वसंत के आने को
पहले हेमंत ज़रूरी हो?
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क्यों मंज़िल हमें मिली नहीं
दिन रात तपस्या कर के भी ?
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क्यों राहें इतनी लंबी थी
की थके पैर, मन, मस्तिष्क, हृदय ?
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और पाया जवाब मैंने ज़रूर
क्यूकी ढूँढो तो भगवान भी मिलते ज़रूर
~~
ना पुस्तक, लेख , विचारों में
पर मिला मुझे जवाब ज़रूर
सूर्योदय, सूर्यास्त, चांद – सितारों में
~~
सरलता भरा जवाब यूँ हैं —-
की जीवन की राहें बनी दो धाराओं से
जैसे नदियों का संगम हो,
जैसे सुरों का संगम हो,
एक नदी हमारी अपनी हैं – ज़िस्में आशाएँ और सपने हमारे हो
एक नदी संसार और श्रृष्टि की- जिसमें इच्छा भगवान की हो
~
इन दो नदियों के संगम से
जीवन राही हम चलते रहे
और देखा हमने उम्र भर यूँही ,
–
कुछ सड़के बिखरी पहली बारिश में
कुछ सदियों तक बनी रही
—-प्रीति
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